Homeमध्यप्रदेशविपक्षी एकता का बल...सौ बार गिरे मुंह के बल

विपक्षी एकता का बल…सौ बार गिरे मुंह के बल

  •  कांग्रेस विरोध से जन्मे दलों की जमीन कभी नहीं बन पाई चिरस्थाई
  • अब एंटी मोर्चा भी बनने पर संशय

नई दिल्ली।देश की आजादी के लिए बनाई गई कांग्रेस पार्टी का विरोध करके लगभग सैकड़ा भर राजनीतिक दलों का उदय हुआ और अस्त भी हो गए, मगर भाजपा को अपवाद स्वरूप छोड़कर विश्लेषण करें तो सभी प्रकार की विपक्षी एकता न केवल धराशाई हो गई बल्कि सब के सब मुंह के बल गिरे। नेहरू से मोदी तक की सरकारें और विरोध में लामबंद होने वाले राजनीतिक दलों के अस्तित्व के बारे में विचार करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि अधिकतम दो वर्षों से ज्यादा समय तक विपक्षी एकता नहीं टिक पाई और सब जहां-तहां बिखरकर टूट गए। विपक्षी एकता के खंडित होने का सीधा फायदा सत्तापक्ष याने पहले कांग्रेस और अब सत्ताधारी दल भाजपा को मिलता रहा है। इस दौरान कई क्षेत्रीय दल भी पनपे जिन्होंने क्षेत्रीय स्तर पर जाति,मजहब, धर्म निरपेक्षता और सवर्ण-ब्राह्मण विरोध को हथियार बनाकर देश के राजनीतिक वातावरण को ही दूषित कर रखा है। यह एक बड़ी वजह है जिसके कारण विपक्षी दलों में चिरस्थाई एकता‌ असंभव प्रतीत होती है।

विपक्षी एकता की पहली कोशिश कब हुई

यूं तो विपक्षी एकता अथवा कांग्रेस विरोधी विचारों का आरंभ जनसंघ के जनक स्व.डा श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने सन् 1952 के पहले ही कर दिया था मगर 23 जून 1953 को उनकी मृत्यु के बाद विपक्षी एकता के प्रयासों को झटका लगा। डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी सरदार वल्लभ भाई पटेल के आग्रह पर नेहरू मंत्रिमंडल में 15 अगस्त 1947 से 6 अप्रैल 1950 तक मंत्री रहे। मतभेदों के चलते वे अलग हो गए और भारतीय जनसंघ पार्टी का गठन कर लिया। हालांकि डॉ.मुखर्जी ने कांग्रेस विरोधियों को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास उस समय भी किया लेकिन कांग्रेस के व्यापक जनाधार के आगे प्रयास नाकाफी साबित हुए।

कांग्रेस का दंभ टूटा 1962 में

साठ के दशक में कांग्रेस के एकाधिकार-दंभ को झटका मिलना भी शुरू हो गया था।सन् 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में भारत की पराजय बाद के नेहरू सरकार के खिलाफ माहौल बनना आरंभ हो गया। जिसका परिणाम 1963 में हुए कुछ उपचुनावों में देखने को मिला। कांग्रेस की तमाम कोशिशों तथा देशव्यापी प्रभाव के बाद भी डॉ.राममनोहर लोहिया,मीनू मसानी,मधु लिमये और आचार्य कृपलानी जैसे कांग्रेस विरोधी नेता लोकसभा का चुनाव जीतकर आ गए।

प्रभावी विपक्ष का उदय हुआ 1967 में

ऐसा नहीं है कि विपक्ष में विचारवान व प्रभावी नेताओं की कमी रही हो। 1967 के दौर में पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के विरोध में मजबूत व प्रभावी विपक्ष भी बनकर उभरा था। 1967 के आम चुनाव के बाद न केवल डॉ.राममनोहर लोहिया जैसे कई समाजवादी नेता जीते बल्कि पहली बार कई राज्यों में संविदा सरकारों का उदय हुआ। इतिहास गवाह है कि 1967 में देश के 9 राज्यों में विपक्ष ने लामबंद होकर कांग्रेस को शिकस्त देकर पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारें बनाईं। उत्तर प्रदेश, बंगाल व मध्यप्रदेश इसके उदाहरण बने। मगर विपक्षियों की यह एकता अधिक समय तक परवान न चढ़ी रह सकी।

इमरजेंसी के बाद फिर खड़ा हुआ विपक्ष और बिखरा भी

स्थितियां ऐसी बनी कि सन् 1969 और 1975 के बीच कांग्रेस में ही उथल-पुथल, परस्पर टकराव और बिखराव हुआ। के.कामराज,मोरारजी देसाई जैसे नेताओं के कांग्रेस में प्रभुत्व के चलते इंदिरा गांधी को बाहर कर दिया गया।तभी से इंदिरा गांधी न केवल सख्त हुईं बल्कि उन्होंने अपनी अलग कांग्रेस बनाई। रायबरेली का चुनाव शून्य घोषित होने और फिर 1975 में इमरजेंसी लगाए जाने जैसी बड़ी घटनाओं ने जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में जनता पार्टी बनाकर कांग्रेस की सरकार को उखाड़ फेंकने का दौर भी देश ने देखा।मगर यह दुर्भाग्य ही रहा कि मोरारजी और चौधरी चरणसिंह के बीच चले अंतर्द्वंद से जनता पार्टी सरकार दो वर्ष भी नहीं चल सकी। पुनः कई दल बन गए।

1989 से 2014 के बीच भी गिरकर खड़े हुए और औंधे मुंह गिरे

देश ने 1989 से 2014 के बीच का दौर भी देखा जब राजीव गांधी को सत्ता से बेदखल करने के लिए विपक्ष पुनः एकत्रित हुआ। वीपी सिंह,आईके गुजराल, चंन्द्रशेखर और देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाकर कांग्रेस को खत्म करने का प्रयास हुआ मगर अल्प समयोपरांत ही सबकुछ धूल-धूसरित हो गया। अब स्थिति यह बन रही है कि कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में है और वे राजनेता जिनका जन्म ही कांग्रेस विरोध से हुआ था वे ही अब कांग्रेस की बैसाखी के सहारे नरेंद्र मोदी सरकार को समाप्त करने की युक्ति में लगे हुए हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि कांग्रेस की जगह भाजपा निशाने पर है।

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