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वीरांगना रानी दुर्गावती ने 24 जून 1564 को दी थी शहादत.. पढ़ें वीरता की कहानी

कार्तिक गुप्ता, जबलपुर। रानी दुर्गावती ने मुगलों के दांत खट्टे करते हुए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। जहां पर रानी दुर्गावती ने अपने प्राण त्यागे थे, वो जगह है संस्कारधानी जबलपुर। रानी दुर्गावती ने 24 जून 1564 को मुगलों से लोहा लेते हुए अपने पुत्र और अपने सफेद हाथी के साथ अपने प्राण त्याग दिए थे। जानिए रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर जबलपुर के समाधि स्थल कहां है और उसका क्या महत्व है।
सफेद हाथी पर सवार होकर दिखाया दुर्गा रूप
जबलपुर मुख्यालय से 19 किलोमीटर दूर रानी दुर्गावती का समाधि स्थल है। इसी जगह पर रानी दुर्गावती ने मुगलों से लोहा लेते अपने प्राण त्यागे थे। रानी दुर्गावती 24 जून 1564 को जब अपने मदन महल किले में थीं, उसी दौरान भरी बरसात में वो अपने गढ़ मंडला के लिए अपने सफेद हाथी पर सवार होकर निकली थीं। लेकिन रानी दुर्गावती की सेना में मौजूद मुगलों के जासूसों ने इस बात की सूचना मुगलों तक पहुचा दी। जैसे ही रानी दुर्गावती जबलपुर की ग्राम पंचायत पिपरिया खुर्द स्थित नर्रई नाला पहुचीं तो उनके सफेद हाथी ने कीचड़ और दलदल भरे नर्रई नाले में चलने में असमर्थता जाहिर कर दी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, क्योंकि रानी दुर्गावती को मुगलों ने चारों ओर से घेरकर उन पर तीरों की बौछार कर दी थी। एक तीर रानी के पुत्र वीर नारायण की आंख पर लग चुका था, जिससे कि वीर नारायण घायल होते हुए भी मुगली सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। वीरांगना महारानी दुर्गावती साक्षात दुर्गा थीं। रानी ने अंत समय निकट जानकर अपनी कटार खुद ही अपने सीने में मारकर अपना बलिदान दे दिया। इसकी गवाह बनी रानी दुर्गावती की यह समाधि स्थल आज भी संस्कारधानी के साथ पूरे विश्व में जानी जाती है।
आज भी सुनाई जाती है अमर गाथा
जबलपुर और मंडला सीमा से लगे रानी दुर्गावती के समाधि स्थल की देखभाल पुरातत्व विभाग और नगर निगम करता है। हर साल बलिदान दिवस पर समाधि स्थल पर कई आयोजन किये जाते हैं। नर्रई नाले के नाम से संचालित शासकीय स्कूल में बलिदान दिवस के पांच दिन पूर्व ही आयोजन शुरू हो जाते हैं। स्कूल में पढऩे वाले छात्र-छात्राओं को रानी दुर्गावती की जीवन गाथा के बारे में शिक्षकों द्वारा बताया जाता है। 24 जून 1564 का वो काला दिन आज भी संस्कारधानी जबलपुर के लोगों के साथ पूरे विश्व में रानी दुर्गावती के बलिदान का गवाह बना हुआ है, जो वर्तमान और आने वाली कई पीढिय़ों को रानी दुर्गावती की इस बलिदान भरी गाथा से रूबरू करवाता रहेगा।

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