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मोदी सरकार के आने के बाद बदल गया बजट का कलेवर.. पहले का दौर था कुछ और..?

जबलपुर। याद कीजिए आजादी के बाद से लेकर 2013 तक का दौर। सरकार का लेखा-जोखा यानि कि बजट..। पहले रेल बजट और उसके बाद आम बजट। लोगों की उम्मीदें सातवें आसमान पर रहती थीं। रेल बजट में तो लोगों को लगता था कि बस अब ये ट्रेन मिलने वाली है, किराया में राहत मिलने वाली है, रेल परियोजना शुरू होने वाली है। बहरहाल साल दर साल ये बैकलॉग चलते रहता था। इसी तरह आम बजट में हर छोटी-मोटी चीजें महंगी-सस्ती हो जाया करती थीं। आमजन भी बड़ी आसानी से समझ जाता था कि उन्हें कितनी राहत मिल रही है या मिलने वाली है.. सामान महंगा होने से कितनी चपत लगने वाली है। बहरहाल मार्च माह में यह हर साल होता था। लोग भी इसके अभ्यस्थ थे और आदी भी हो चुके थे। लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद रेल बजट खत्म हो गया.. आम बजट में भी लोकलुभावन वादों की जगह ठोस रणनीति और पक्का अर्थशास्त्र ने इसकी जगह ले ली। अब आम बजट आम लोगों को समझ नहीं आता। अर्थशास्त्री भी घनचक्कर बन जाते हैं। यानि कि आलोचना करें तो क्या करें और तारीफ करें तो क्या करें.. ये किसी के पल्ले नहीं पड़ता।
नई घोषणा की जगह पुरानी परियोजनाएं पूरी की
रेल बजट में आजादी से लेकर अब तक घोषणाएं होती रहीं, नई ट्रेन चलाने के वादे होते रहे.. लेकिन इनमें से ज्यादातर अधूरे ही रह जाया करते थे। लेकिन मोदी सरकार ने रेल परियोजनाओं और नई ट्रेनों की घोषणा करने की बजाय, उन्हें पूरी करने पर जोर दिया। हकीकत में ऐसा हुआ भी जब पुरानी परियोजनाएं पूरी हुईं। जबलपुर-गोंदिया ब्रॉडगेज पूर्णता की ओर है, तो लखनादौन-रीवा फोरलेन भी शुरू हो चुका है। ऐसी कई घोषणाएं पूरी हो चुकी हैं।
लोकलुभावन वादों से बचने की कवायद
पहले की सरकारें लोकलुभावन वादे कर जनता को रिझाने में जुटी रहती थीं। लेकिन जब से मोदी सरकार आई है, जब से लोकलुभावन वादों की जगह ठोस योजनाएं लाई जा रही हैं। यही वजह है कि बजट में ऐसी कोई घोषणाएं नहीं होतीं, जो लोगों को लुभाएं और सरकार का बजट बढ़ाएं। ऐसे में सरकार सिर्फ उन्हीं योजनाओं पर फोकस कर रही है, जो पहले से चल रही हैं। भले राज्यों में चुनाव हों या फिर लोकसभा चुनाव के पहले का बजट। मोदी सरकार किसी भी लोकलुभावन वायदों से बचते हुए अपनी राह चलती नजर आती है।

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