- कांग्रेस इसबार जोर लगाने की तैयारी में
- जिले के मुद्दे पर भाजपा है बैकफुट पर
जबलपुर। 1956 में मध्यप्रदेश की स्थापना के बाद से ही सिहोरा विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में है। अंतर अब इतना है कि सामान्य से यह सीट 2008 में हुए एसेंबली इलेक्शन के बाद से अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए निर्धारित है। पहले सिहोरा क्षेत्र का व्यापक दायरा हुआ करता था और इसमें कटनी जिले के कई गांव भी शामिल हुआ करते थे। मगर 2008 में सिहोरा विधानसभा क्षेत्र का नक्शा ही बदल चुका है। अब इस क्षेत्र में सिहोरा और कुंडम जनपद/तहसीलें हैं। कुंडम पहले बरगी विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा हुआ करता था। यही वजह है अब इस क्षेत्र का राजनैतिक समीकरण बदल गया है। लगभग 2 लाख मतदाताओं वाले सिहोरा विधानसभा क्षेत्र का मिजाज इस समय जिले के मुद्दे पर गरमाया हुआ है।
कांग्रेस के शासनकाल में 1 अक्टूबर 2003 को केबिनेट ने सिहोरा को जिला बनाने की मंजूरी दी थी। तभी से इस मुद्दे को कांग्रेस हर चुनाव में उठाती रही है। भाजपा इसकी काट के रूप में कुछ नया करने की जुगत में है। भाजपा को इस मुद्दे के अलावा आने वाले विधानसभा चुनाव में इस सीट से बहुजन समाज पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसी वोट -कटवा पार्टियों से होने वाले नुकसान का डर भी सता रहा है। अजजा के लिए आरक्षण होने के बाद से ये दोनों ही पार्टियां इस क्षेत्र से न केवल चुनाव मैदान में उतर रही हैं बल्कि अजा और जनजाति वर्ग के काफी वोट बटोर रही हैं।गोंगपा और बसपा कांग्रेस-भाजपा के वोटबैंक पर सेंधमारी करते हैं। जिससे दोनों ही दलों का चुनावी गणित बिगड़ जाता है। 2023 के चुनाव में फाइट तगड़ी होनी है,इस बात के संकेत मिल रहे हैं।
क्या हैं पिछले 3 चुनाव के आंकड़े
2008 में सिहोरा सीट आदिवासियों के लिए रिजर्व होने के बाद पहले चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस के मुकाबले अच्छे वोट बटोर लिए थे। बीजेपी की नंदनी मरावी को 40,780 और कांग्रेस के मुन्ना सिंह मरावी को 24025 वोट से ही संतोष करना पड़ा था। 2013 में दोनों ही पार्टियों के बीच का अंतर कम हो गया। भाजपा की नंदनी मरावी को 63931 वोट मिले तो कांग्रेस की जमुना मरावी को 48927 वोट मिले। यानी 2008 और 2013 के चुनाव में बीजेपी की जीत के मार्जिन में काफी कमी आई। अब यदि पिछले चुनाव यानी 2018 की बात करें तो बीजेपी की जीत के अंतर में सीधे दो हजार की गिरावट आ गई थी। 2023 के चुनाव में क्या स्थिति बनती है,यह तो प्रत्याशी चयन और दोनों प्रमुख दलों की चुनावी रणनीति पर निर्भर करेगा।
वोट- कटवा पार्टियों से क्यों डरी हुईं है दोनों पार्टियां
दरअसल, सिहोरा विधानसभा क्षेत्र में बीएसपी का थोड़ा बहुत प्रभाव तो अरसे से रहा है। मगर अब रिजर्व सीट होने के बाद इस क्षेत्र से गोंगपा भी हर चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े करती है। बीएसपी के बाद गोंगपा ने इतना बड़ा वोटबैंक बना लिया है कि दोनों ही दल इनकी मौजूदगी से डरे हुए हैं। पिछले दो चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि इनका क्या असर रहा। 2013 के चुनाव में बीएसपी तीसरे स्थान पर थी।उसे 11,008 वोट मिले थे। गोंगपा ने चौथे स्थान में रहकर 5750 वोट बटोर लिए थे। इसके उलट 2018 में बसपा ने जहां 6028 वोट लिए वहीं गोंगपा को 5937 वोट मिले।
काका काशी प्रसाद पाण्डेय जैसे दिग्गज यहां से जीतते रहे
एक समय था जब सिहोरा सामान्य सीट थी और यहां से काका काशी प्रसाद पाण्डेय जैसे दिग्गज नेता लगातार या यूं कहें कि अपने जीते जी कभी कोई चुनाव नहीं हारे। वे 1967 से 1972 तक विधानसभा के अध्यक्ष भी रहे और डीपी मिश्रा की सीएम की कुर्सी जाने के मामले में भी चर्चाओं में रहे हैं। काशी प्रसाद पाण्डेय ने कांग्रेस के टिकट पर 1957 में यहां से नया एमपी बनने के बाद पहला चुनाव लड़ा था। उसके बाद वे 1972 तक यहां से विधायक रहे। मंजू राय, नित्यनिरंजन खंपरिया कांग्रेस से विधायक रहे तो काका काशी प्रसाद पाण्डेय के पोते प्रभात पाण्डेय भाजपा के टिकट पर दो बार सिहोरा से चुनाव जीत चुके हैं।
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