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राममंदिर की मुक्ति के लिए 76 युद्ध लड़े गए, लाखों लोगों ने बलिदान दिया

नई दिल्ली। श्रीराम की नगरी अयोध्या ने क्या नहीं देखा। भगवान राम के स्वधाम गमन के बाद सरयू में आई भीषण बाढ़ से अयोध्या की भव्य विरासत को काफी क्षति पहुंची। भगवान राम के पुत्र कुश ने अयोध्या की विरासत नए सिरे से सहेजने का प्रयास किया। उन्होंने रामजन्मभूमि पर विशाल मंदिर का निर्माण करवाया। युगों के सफर में यह मंदिर और अयोध्या जीर्ण-शीर्ण हुई, तो विक्रमादित्य नाम के शासक ने इसका उद्धार किया। 57 ईस्वी पूर्व सम्राट विक्रमादित्य ने श्रावस्ती के बौद्ध राजा को हराकर अयोध्या को उसका पुराना वैभव लौटाया और सभी जमींदोज हो चुके देवालयों का जीर्णोद्धार करवाय़ा। विक्रमादित्य ने अयोध्या का जीर्णोद्धार कराने के साथ रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर में कसौटी के 84 स्तंभ थे। मंदिर के आसपास छह सौ एकड़ का विस्तृत मैदान था, जिसमें सुंदर उद्यान और मनोहारी लताकुंज थे। उद्यान के बीच में दो सुंदर पक्के कूप थे। मंदिर में नित्य प्रात:काल भैरवी राग में शहनाई का वादन होता था। बड़े-बड़े विद्वान भगवान की मंगला आरती के समय पाठ किया करते थे। मंदिर परिसर में भव्य अतिथिशाला और पाठशाला भी थी। इतिहास के पन्नों में यह दर्ज है कि इस मंदिर में एक सर्वोच्च शिखर और सात कलश थे। मंदिर के शिखर की चमक और ऊंचाई का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि मंदिर को 40 किलोमीटर दूर मनकापुर से भी देखा जा सकता था।
लगभग 500 सालों में अयोध्या ने कई पड़ाव देखे। इतिहासकारों का मानना है कि राममंदिर की मुक्ति के लिए 76 युद्ध लड़े गए और लाखों लोगों ने अपना बलिदान दिया। 21 मार्च 1528 को बाबर के आदेश पर उसके शिया सेनापति मीर बाकी ने भगवान राम की जन्मभूमि पर बने मंदिर को ध्वस्त कराया था। 1528 में ही अयोध्या के पास की भीटी रियासत के राजा महताब सिंह, हंसवर रियासत के राजा रणविजय सिंह, रानी जयराज कुंवरि, राजगुरु पं. देवीदीन पांडेय आदि के नेतृत्व में मंदिर की मुक्ति के लिए जवाबी सैन्य अभियान छेड़ा गया। हालांकि शाही सेना को उन्होंने विचलित जरूर किया लेकिन वे जीत हासिल नहीं कर पाए। राम मंदिर के लिए लड़े गए युद्धों में एकाध बार ऐसा भी हुआ, जब विवादित स्थल पर मंदिर के दावेदार राजाओं-लड़ाकों ने कुछ समय के लिए कब्जा भी जमाया लेकिन यह स्थाई नहीं रह सका। 1530 से 1556 ई. के मध्य हुमायूं एवं शेरशाह के शासनकाल में 10 युद्धों का उल्लेख मिलता है। इन युद्धों का नेतृत्व हंसवर की रानी जयराज कुंवरि एवं स्वामी महेशानंद ने किया। रानी स्त्री सेना का और महेशानंद साधु सेना का नेतृत्व करते थे। इन युद्धों की प्रबलता का अंदाज रानी और महेशानंद तथा उनके सैनिकों की शहादत से लगाया जा सकता है। 1556 से 1605 ई. के बीच अकबर के शासनकाल में 20 युद्धों का जिक्र मिलता है। इन युद्धों में अयोध्या के ही संत बलरामाचार्य सेनापति के रूप में लड़ते रहे और अंत में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई। बलरामाचारी के बलिदान के बाद अकबर ने बाबरी मस्जिद के सामने चबूतरे पर राममंदिर बनाने की इजाजत दे दी। औरंगजेब के शासनकाल 1658 से 1707 ई. के मध्य राममंदिर के लिए 30 बार युद्ध हुए। इन युद्धों का नेतृत्व बाबा वैष्णवदास, कुंवर गोपाल सिंह, ठाकुर जगदंबा सिह आदि ने किया। माना जाता है कि इन युद्धों में दशम् गुरु गोविंद सिंह ने निहंगों को भी राममंदिर की मुक्ति संघर्ष के लिए भेजा था और आखिरी युद्ध को छोडकऱ बाकी में हिंदुओं को कामयाबी भी मिली। 18वीं शताब्दी के मध्य तक मुगल सत्ता का तो पतन हो गया, लेकिन मंदिर के लिए संघर्ष जारी रहा। हालांकि अवध के नवाबों के समय अयोध्या को कुछ हद तक सांस्कृतिक-धार्मिक स्वायत्तता हासिल हुई। 1847 से 1857 ई. के बीच अवध के आखिरी नवाब रहे वाजिद अली के समय बाबा ऊद्धौदास के नेतृत्व में दो बार युद्ध का उल्लेख मिलता है। अंग्रेजों के शासनकाल में अयोध्या-फैजाबाद के स्थानीय मुस्लिमों ने बैठक कर तय किया कि मुस्लिम मंदिर के लिए बाबरी मस्जिद का दावा छोड़ देंगे। लेकिन अंग्रेजों को जब इसकी भनक लगी, तो उन्होंने इस मुहिम के सूत्रधार अमीर अली एवं बाबा रामशरणदास को विवादित स्थल के कुछ ही फासले पर स्थित इमली के पेड़ पर फांसी दे दी।

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