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संस्कारों की उपेक्षा कदापि नहीं होनी चाहिए.. ध्रुव और प्रह्लाद को बाल्यावस्था में ही मिली अच्छी शिक्षा: स्वामी अखिलेश्वरानंद गिरि

जबलपुर। मध्यप्रदेश गोपालन एवं पशुधन संवर्धन बोर्ड की कार्य परिषद के अध्यक्ष महामंडलेश्वर स्वामी अखिलेश्वरानंद गिरि जी ने कहा कि मनुष्य सृष्टि के अन्य जीवों (देहधारियों) की अपेक्षा परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। वह सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी है। इसमें दो राय हो नहीं सकती लेकिन कभी-कभी क्षुद्र जीवों की बुद्धिमत्ता मनुष्यों को हैरानीै में डाल देती है। हम मनुष्येतर जीवों के हैरत अंगेज कार्यों को देखकर अचम्भित हो जाते हैं। मन में विचार आता है कि उन जीवों (मनुष्येतर देहधारियों) में इतनी क्षमता, बुद्धि और असाधारण कृत्य कैसे प्रकट हो जाते हैं। तब मन में चिंतन जागता है और हमारे धर्म-शास्त्र तथा पुराणों के आख्यानक हमारा ध्यान जीवों के जन्म-जन्मांतर, कल्प-कल्पान्तर, युग-युगांतर की ओर आकर्षित करते हैं।
उन्होंने कहा कि भारतवर्ष में हमारी बुद्धि की धार को तीव्र और तीक्ष्ण करने के लिए श्रुति (वेद), स्मृति, शास्त्र, पुराणादि ग्रन्थ ही आधार हैं। यदि ये सब मनुष्य के पास उपलब्ध न हों तो, हमारे अंदर उद्भूत होने वाले परिस्थितिजन्य प्रश्नों का हमें उत्तर ही नहीं मिल सकेगा। हमें हमारे जीवन में जो संस्कार मिलते हैं, उनमें से कुछ इसी जीवन की शिक्षा, अभ्यास और हमारे स्वयं के श्रम से मिलते हैं। ऐसे संस्कारों को हम ज्ञात संस्कार कह सकते हैं लेकिन हमारी मन मंजूषा में जन्म-जन्मांतर के जो संस्कार जमे होते हैं, वे समय पाकर उद्भूत होते हैं फिर हम मनुष्य योनि में हों या अन्य किसी मनुष्येतर जीवन में, इन्हें हम प्राक्तन संस्कार कहते हैं। प्राक्तन् संस्कारों का प्रभाव हमारे वर्तमान जीवन में आरम्भ से दिखने लगते हैं। इसके भी अनेक उदाहरण हमें पौराणिक ग्रन्थों में मिलते हैं। ध्रुव और प्रह्लाद जैसे नन्हें बालकों को बाल्यावस्था में ही ईश्वर भक्ति मिलना/ऋषिकुमार अष्टावक्र जैसे ऋषि के जीवन में मात्र आठ वर्ष की आयु में ही तत्त्वज्ञान और आत्मबोध होना प्राक्तन् संस्कारों के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं।
जीवन के संस्कार हमारे भविष्य की पीठिका निर्माण करते हैं
महामंडलेश्वर स्वामी अखिलेश्वरानंद गिरि जी ने कहा कि मानव जीवन (या मानव योनि) को अन्य योनियों की अपेक्षा सर्वश्रेष्ठ जीवन माना गया है परन्तु मानव के सामने अपवाद भी प्रस्तुत हुये हैं। श्रीमद्भागवत् महापुराण में गजेन्द्र मोक्ष की कथा, श्री रामायण में कागभुशुण्डि जी का प्रसंग भावुक भक्तों के जीवन में आह्लाद उत्पन्न करते हैं। मैं अपने इस लघु आलेख के माध्यम से यह कहना चाह रहा हूँ कि संस्कारों का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। संस्कारों की उपेक्षा कदापि नहीं होनी चाहिए। वर्तमान जीवन के संस्कार हमारे भविष्य की पीठिका निर्माण करते हैं और पूर्व जीवन के संस्कार हमारे गतिमान वर्तमान के लिए वरदान सिद्ध होते हैं। हम आप सब संस्कारों की परम्परा को पुनर्जागृत करें और संस्कारों का मनोवैज्ञानिक पक्ष भी समझें तथा अन्यों को भी समझाने का प्रयास करें। हमारे नीतिकारों ने कहा है-
! संस्कारो नान्यथा भवेत् !!
संस्कार कभी व्यर्थ नहीं जाते
मनुष्य के भूत, भविष्य और वर्तमान की पीठिका निर्माण करने में संस्कारों की सुदीर्घकालीन परम्परा है।
स्वामी श्री विवेकानंद जी के कथन को सदैव स्मरण करना चाहिए कि मनुष्य वर्तमान में जैसा है, वह अपने अतीत का परिणाम है और वह भविष्य में जैसा होगा उसके वर्तमान का ही परिणाम होगा। अच्छे और सुनहरे भविष्य के लिए वर्तमान को अच्छा बनाना होगा अत: अतीत, वर्तमान और भविष्य परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, यह कभी विस्मरण नहीं होना चाहिए।

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