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रानी अवंती बाई : 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शहीद होने वाली वीरांगना थीं.. जानें जीवन परिचय

  • 23 नवंबर 1857 को रानी अवंतीबाई और वाडिंग्टन के बीच खैरी के पास जोरदार युद्ध हुआ, रानी ने वाडिंग्टन को भागने के लिए मजबूर कर दिया
  • बौखलाए वाडिंग्टन ने किले को काफी दिनों तक घेरे रखा, किले के अंदर रसद खत्म होने लगी, तो रानी कुछ सैनिकों के साथ बाहर निकलीं
  • रानी अवंतीबाई ने बड़ी बहादुरी से अंग्रेजों का मुकाबला किया, अंग्रेजों के हाथों लगने के पहले 20 मार्च 1858 को शहीद हो गईं

जबलपुर। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। इस कविता को कौन नहीं जानता। हर कोई झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के वीरगाथा को जानता है। लेकिन 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शहीद होने वाली एक और वीरांगना थीं। जब उन्होंने अंग्रेजों से लड़ते हुए अपने प्राण त्यागे, तब उनकी उम्र महज 27 वर्ष की थीं। लेकिन उनकी वीरगाथा को इतिहास में वह जगह नहीं मिल पाई, जिसकी वह कहदार थीं।
बचपने से सीखी तलवारबाजी और घुड़सवारी
मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के मनकेणी गांव में 16 अगस्त 1831 में जन्म हुआ अवंतीबाई का। उनके पिता जुझार सिंह 187 गांवों के जमींदार थे। उन्होंने बचपन में ही अवंतीबाई को तलवारबाजी और घुड़सवारी सिखाई थी। बाद में उनकी शादी लोधी राजपूतों की रियासत रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह के बेटे राजकुमार विक्रमादित्य सिंह के साथ हुई। 1850 में लक्ष्मण सिंह के निधन के बाद विक्रमादित्य सिंह ने राजगद्दी संभाली। लेकिन वे काफी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। जिससे राजकाज की जिम्मेदारी उनकी पत्नी रानी अवंतीबाई पर आ गई थी।
अंग्रेज सरकार ने रामगढ़ को अपने अधीन किया तो आत्मसम्मान को ठेस पहुंची
उस समय लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति से सभी खौफ खाए हुए थे। इस नीति में जिस रियासत का कोई बालिग उत्तराधिकारी नहीं होता था, उसे अंग्रेज अपने अधीन कर लेते थे। साथ ही जिन भारतीय शासकों के कोई पुत्र नहीं थे, वे भी बगैर अंग्रेजी हुकूमत की आज्ञा के किसी को गोद नहीं ले सकते थे। डलहौजी कानपुर, झांसी, नागपुर, सतारा, जैतपुर, संबलपुर, उदयपुर, करौली आदि रियासतों को हड़प चुका था। उधर, रामगढ़ के राजा विक्रमादित्य सिंह की तबीयत भी खराब हो गई थी। उनके दोनों बेटे अमन सिंह व शेर सिंह अभी नाबालिग थे। ऐसे में अंग्रेज सरकार ने रामगढ़ रियासत को ‘कोर्ट ऑफ वार्ड्स’ के अधीन कर लिया। इस घटना से रानी अवंतीबाई लोधी के आत्मसम्मान को काफी ठेस पहुंची।
रानी के एक पत्र ने राजाओं, जमींदारों और मालगुजारों को जगाया
मई 1857 में राजा विक्रमादित्य सिंह का निधन हो गया। उसी समय क्रांतिकारियों का संदेश रामगढ़ पहुंचा। देश में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बज चुका था। रानी ने अवसर भांपकर अंग्रेजों द्वारा नियुक्त शेख मोहम्मद तथा मोहम्मद अब्दुल्ला को रामगढ़ से बाहर निकाल दिया और किसानों को अंग्रेजों के निर्देशों को नहीं मानने का आदेश दिया। जनता भी उनके साथ हो गई। अवंतीबाई जानती थीं कि अकेले अंग्रेजों से नहीं लड़ा जा सकता। इसलिए उन्होंने अपने राज्य के आसपास के राजाओं, परगनादारों, जमींदारों और बड़े मालगुजारों को एक पत्र भेजा। उसमें उन्होंने लिखा कि अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार रहो या चूड़ियां पहनकर घर में बैठो। उनका यह पत्र काम कर गया और सभी एक मंच पर आ गए। इसका नेतृत्व किया गढ़ा गोंडवाना के राजा शंकरशाह ने। लेकिन अंग्रेजों ने राजा शंकरशाह और उनके बेटे कुंवर रघुनाथ शाह को तोप के मुंह से बांधकर उड़ा दिया। इसके बाद तो मानों, अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह भड़क गया।
मंडला को छोड़कर पूरा जिला स्वतंत्र हो चुका था
रामगढ़ के सेनापति ने भुआ बिछिया थाना में चढ़ाई कर दी और उस पर अधिकार कर लिया। रानी अवंतीबाई के सिपाहियों ने घुघरी पर चढ़ाई कर उस पर भी कब्जा कर लिया। वाडिंग्टन विद्रोह को दबा नहीं पा रहा था। मंडला को छोड़कर पूरा जिला स्वतंत्र हो चुका था। अवंतीबाई ने मंडला पर कब्जा करने हमला बोला। शहपुरा और मुकास के जमींदार भी उनकी मदद के लिए पहुंचे और खड़देवरा के सिपाही भी रानी के सिपाहियों से मिल गए। 23 नवंबर 1857 को रानी अवंतीबाई और वाडिंग्टन के बीच खैरी के पास जोरदार युद्ध हुआ। रानी ने वाडिंग्टन को भागने के लिए मजबूर कर दिया। वह मंडला छोड़ सिवनी भाग गया।
वाडिंग्टन ने ताकत बढ़ाकर की चढ़ाई
वाडिंग्टन खैरी में मिली हार पचा नहीं पा रहा था। उसने फिर अपने सैनिकों को एकजुट किया। उसकी मदद के लिए रीवा के राजा व नागपुर से भी सेना पहुंच गई थी। ऐसे में उसकी ताकत काफी बढ़ गई और उसने 15 जनवरी 1858 को घुघरी पर कब्जा कर लिया। बाद में उसने रामगढ़ पर चढ़ाई की। वाडिंग्टन ने किले को काफी दिनों तक घेरे रखा। जब किले के अंदर रसद खत्म होने लगी, तो रानी अपने कुछ सैनिकों के साथ किले से बाहर निकलकर देवहारगढ़ की पहाड़ियों की ओर चली गई। अंग्रेजों ने उनका पीछा किया और उन्हें घेर लिया। रानी अवंतीबाई बड़ी बहादुरी से अंग्रेजों का मुकाबला कर रही थीं. तभी युद्ध में रानी के बाएं हाथ में गोली लगी. जब अवंतीबाई को हार सामने दिखने लगी, तो अंग्रेजों के हाथों लगने के पहले ही उन्होंने अपनी अंगरक्षक से तलवार छीनकर अपने सीने में घोंप ली। उनके बलिदान का वह दिन था 20 मार्च 1858 का।
अंग्रेजों को पत्र लिखा था, ताकि प्रजा को न सताएं
शहीद होने के पहले रानी अवंतीबाई लोधी ने अंग्रेजों के नाम एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि लोगों और सैनिकों को उन्होंने ही विद्रोह के लिए भड़काया था. उनकी प्रजा बिलकुल निर्दोष है। इतिहासकार कहते हैं कि ऐसा उन्होंने इसलिए कहा क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि अंग्रेज उनकी प्रजा व सैनिकों के साथ अमानवीय व्यवहार करें। रानी अवंतीबाई के स्वतंत्रता संग्राम में दिए योगदान की याद में 20 मार्च 1988 को भारत सरकार ने उनके नाम पर डाक टिकट भी जारी किया। भले ही 1857 के रणसंग्राम में रानी अवंतीबाई लोधी शहीद हो गईं, लेकिन उनकी शहादत आज भी करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा बनी हुई है।

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