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जानिए भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को

पुण्यतिथि आज : भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया, आजादी के आंदोलन में हुए थे शामिल
नई दिल्ली। भारत के प्रथम राष्ट्रपति व महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी डॉ राजेन्द्र प्रसाद भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने भारत के पहले मंत्रिमंडल में 1946 व 1947 में कृषि और खाद्यमंत्री का दायित्व भी निभाया था।

राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसम्बर 1884 को बिहार के तत्कालीन सारण जिले (अब सीवान) के जीरादेई नामक गांव में हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूल रूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। वे वहाँ से बिहार के जिला सारण (अब सीवान) के एक गाँव जीरादेई में जा बसे। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे। माँ रामायण, महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।
पांच वर्ष की उम्र में पढ़ी फारसी
पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेन्द्र बाबू का विवाह उस समय 13 वर्ष की उम्र में राजवंशी देवी से हो गया। 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। 1902 में कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पदक के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था।
स्वतंत्रता आंदोलन में कूदे
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1928 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पद त्याग कर दिया। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ़ में उन्होंने काफी बढ़चढ़ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था। 1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुनः 1939 में सँभाला था।
राष्ट्रपति के तौर पर कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भारत के स्वतंत्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था।
भारतीय संविधान के लागू होने के समय नहीं बन गए साक्षी
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद की बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया। सितम्बर 1962 में उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद का निरधन 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम में हुआ था।

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