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पाकिस्तान से न होते 3-3 युद्ध, न कश्मीर में होता बवाल… अगर मान ली होती वीर सावरकर की बात

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  • वीर सावरकर ने गांधी के अहिंसावाद और सेक्युलरिज्म को चुनौती दी
  • कहा था-कांग्रेस की नीति के कारण इस देश में हिंदू और मुसलमान दो अलग देश की तरह रह रहे हैं
  • मुसलमानों को अलग देश मिला तो भारत के लिए स्थायी सिरदर्द होगा

जबलपुर। वीर सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे और गांधी के अहिंसावाद और सेक्युलरिज्म को उन्होंने चुनौती दी थी। सावरकर ने हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहते साफ कहा था कि कांग्रेस की नीति के कारण इस देश में हिंदू और मुसलमान दो अलग देश की तरह रह रहे हैं। अगर मुसलमानों को अलग देश मिलता है तो वह भारत के लिए स्थायी सिरदर्द होगा। सावरकर की यह सोच सही साबित हुई और पाकिस्तान हमारे लिए दशकों तक चुनौती रहा। पाकिस्तान से 3-3 युद्ध हुआ और दशकों तक आतंकवाद का दंश हमने झेला। अब भी गाहे-बगाहे पाकिस्तान हमें आंखें दिखाता रहता है। आतंकवाद का फन भले ही हमने कुचल दिया है, लेकिन खतरा अभी टला नहीं है। इसी तरह आजादी के बाद से ही जम्मू-कश्मीर हमेशा सुलगता रहा, अलगाववाद का काला साया उस पर मंडराता रहा। जम्मू-कश्मीर की समस्या का हल भी हमारे लिए सिरदर्द बना रहा। दंगों का दंश भी अनेकों बार हमारे देश को झेलना पड़ा। केंद्र सरकार ने धारा 370 हटाकर कुछ हद तक जम्मू-कश्मीर की समस्या को सुलझा लिया है।

वीर सावरकर के माफीनामे का सच..

वीर सावरकर 4 जुलाई, 1911 से सैल्युलर जेल में बंद थे। इस दौरान उन्होंने पांच बार दया याचिका अंग्रेज सरकार को दी। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘जब-जब सरकार ने सहूलियत दी, तब-तब मैंने याचिका दायर की’। उन्होंने अपने छोटे भाई नारायण राव को जो पत्र लिखे, उनमें भी अपनी पिटिशन के बारे में लिखा है, कभी कुछ छुपाया नहीं। महात्मा गांधी ने भी 1920-21 में अपने समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ में वीर सावरकर के पक्ष में लेख लिखे थे। गांधी जी का भी विचार था कि सावरकर को चाहिए कि वे अपनी मुक्ति के लिए सरकार को याचिका भेजें। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है, क्योंकि स्वतंत्रता व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है। दअरसल जिस माफीनामे के बारे में बताया जाता रहा है, वह सिर्फ़ एक सामान्य सी याचिका थी, जिसे फ़ाइल करना राजनीतिक कैदियों के लिए एक सामान्य कानूनी विधान था। 1920 में वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने पर ब्रिटिश कानून न तोडऩे और विद्रोह न करने की शर्त पर उनकी 21 मई, 1921 को रिहाई हो गई। सावरकर की सोच थी कि अगर वे जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे, जो कि अंडमान निकोबार की जेल से संभव नहीं था।

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